रूस यूक्रेन के बीच युद्ध को थामा नहीं गया तो कच्चे तेल के दाम और बढ़ सकते हैं जिससे भारत की मुसीबत और बढ़ेगी.

रूस के यूक्रेन पर ‘सैन्य कार्रवाई’ करने की घोषणा से ना केवल चारों तरफ तबाही मच रही है बल्कि इससे वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी झटके लगना शुरू हो गया है. रूस के हमलों का असर कमोडिटी, इक्विटी और मुद्रा बाजारों में महसूस किया जा रहा है, लेकिन इस प्रभाव के यहीं समाप्त होने की संभावना नहीं है. लंबे समय तक पड़ने वाला ये प्रभाव इस बात पर निर्भर करता है कि अमेरिका सहित नाटो के सदस्य देश इस संकट पर किस तरह प्रतिक्रिया देते हैं. भारत की अर्थव्यवस्था भी इससे प्रभावित हो सकती है.
ईंधन के कीमतों में भारी इजाफा
रूस दुनिया में कच्चे तेल/गैस का प्रमुख निर्यातक है. अगर पश्चिमी देश रूसी निर्यात पर बडे़ आर्थिक प्रतिबंध लगाते हैं, तो इससे ईंधन की कीमतों में भारी वृद्धि हो सकती है. विश्व बैंक के WITS डाटाबेस के आंकड़ों के अनुसार, ईंधन आधारित वस्तुओं का रूसी निर्यात में 50 फीसदी से अधिक हिस्सा है. यूएस एनर्जी इंफॉर्मेशन एडमिनिस्ट्रेशन (यूएस-ईआईए) के आंकड़ों से पता चलता है कि रूस वैश्विक स्तर पर कच्चे तेल उत्पादन का कम से कम दसवां हिस्सा तैयार करता है. जो मध्य पूर्व में पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन (ओपेक) में कुल कच्चे तेल उत्पादन का लगभग आधा है.
24 फरवरी को 2014 के बाद पहली बार कच्चे तेल की कीमतों ने 100 डॉलर प्रति बैरल की सीमा को पार किया है, जो रूसी कार्रवाई का सीधा नतीजा था. यूरोपीय देश गैस के लिए काफी हद तक रूस पर निर्भर हैं. ऐसी आशंकाएं हैं कि इसके नतीजे लंबे समय तक दिख सकते हैं. उदाहरण के लिए, जर्मनी ने रूस के नॉर्ड स्ट्रीम 2 गैस पाइपलाइन की मंजूरी पर रोक लगा दी है. अब रूस-यूक्रेन संकट के कारण ना केवल ईंधन की कीमतें बढ़ेंगी बल्कि इसका असर दूसरी कई चीजों पर भी पड़ेगा. रूस दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण गेहूं उत्पादक देशों में से एक भी है. जिससे खाने की चीजें भी महंगी हो जाएंगी.
तेजी से लुढ़क रहे शेयर बाजार
विशेषज्ञों का मानना है कि महंगाई का झटका कोरोना महामारी के वजह से पहले से पटरी से उतरी वैश्विक अर्थव्यवस्था पर पड़ सकता है. ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट में कहा गया है, ‘2014 के बाद पहली बार तेल का दाम 100 डॉलर प्रति बैरल तक उछला है, जिसने वैश्विक अर्थव्यवस्था को बड़ा झटका दिया है. अमेरिकी फेडरल रिजर्व और उसके साथी केंद्रीय बैंकों के लिए यह चिंताजनक बात है क्योंकि वे महामारी से उबरे बिना अब एक और संकट के सामने खडे़ हैं.
बिना किसी वैश्विक संकट के पहले से ही महंगाई एक बड़ा सिरदर्द बनी हुई है. विकसित देशों में अधिक आक्रामक मौद्रिक सख्ती भारत जैसे देशों में पूंजी और विदेशी मुद्रा बाजारों पर भी दबाव डालेगी. शेयर बाजारों पर इसका बेहद बुरा असर पड़ा है. भारत का बेंचमार्क स्टॉक मार्केट इंडेक्स, BSE S&P 24 फरवरी को 4.7 फीसदी गिर गया है.
बिगड़ सकता है बजट का पूरा गणित
भारत के पांच राज्यों में हो रहे चुनावों के बीच तेल की कमीतों को लेकर पहले से ही हल्ला मचा हुआ है. अब रूस-यूक्रेन संकट ने इस मुश्किल को और बढ़ा दिया है. पेट्रोल-डीजल की कीमतों को नवंबर 2021 से स्थिर रखा गया है, जब भारत के कच्चे तेल की कीमत 80 डॉलर प्रति बैरल थी. इस साल के आर्थिक सर्वेक्षण में अनुमान लगाया गया है कि अगले वित्त वर्ष में कच्चे तेल की कीमतें 70-75 डॉलर प्रति बैरल के दायरे में बनी रहेंगी.
अगर कच्चे तेल की कीमतें मौजूदा स्तरों पर भी बनी रहती हैं, तो ईंधन की कीमतों में 10 रुपये प्रति लीटर से अधिक की वृद्धि करनी होगी, जब तक कि सरकार यूनियन एक्साइज ड्यूटी को कम करने या पेट्रोलियम सब्सिडी बढ़ाने के लिए तैयार नहीं होती है. इन दोनों फैसलों से बड़े पैमाने पर बजट में हुई गणना गड़बड़ा सकती है. कीमतों में भारी वृद्धि से महंगाई बढ़ेगी, आर्थिक संकट बढ़ेगा और राजनीतिक असंतोष बढ़ने की भी संभावना है. एक अकेली रोशनी की कीरण या कहें उम्मीद, भारत का विदेशी मुद्रा भंडार है, जो लगभग 630 बिलियन डॉलर (जनवरी 2021 के आंकड़ों के अनुसार) है.
लंबे समय तक जारी रहेगा संकट
वैश्विक आर्थिव्यवस्था में सोवियत संघ के पतन के बाद बड़ा परिवर्तन आया है. सोवियत खेमे के साथ शीत युद्ध में दशकों का समय बिताने के बाद अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने ना केवल वैश्विक व्यवस्था में मजबूती की है बल्कि वह आर्थिक तौर पर भी अधिक सक्षम हुए हैं. दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन ही अकेला अमेरिका को टक्कर दे सकता है. तथ्य बताते हैं कि चीन का आर्थिक भविष्य अमेरिकी अर्थव्यवस्था के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है. अमेरिका अभी भी चीन के लिए सबसे बड़ा निर्यातक बाजार है और चीन के पास दुनिया में डॉलर का सबसे बड़ा भंडार है. ये बातें जानकर लगता नहीं कि रूस की वजह से बड़ा संकट पैदा होगा. लेकिन ऐसा नहीं है.
यूक्रेन पर हमला करके अमेरिका और उसके नाटो सहयोगियों को सैन्य चुनौती देने का रूस का फैसला पारस्परिक रूप से फायदेमंद लग सकता है. वो इससे दुनिया को ये अहसास कराने की कोशिश कर रहा है कि वही अमेरिका के सामने खड़ा सबसे ताकतवर देश है. क्योंकि रूस की एक मजबूत देश वाली तस्वीर धुंधली होती जा रही थी और उसकी जगह चीन की तस्वीर साफ दिखने लगी थी. लेकिन रूस की यूक्रेन पर की गई कार्रवाई वैश्विक आर्थिक व्यवस्था के मूल आधार को बदल सकती है.
रूस वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद के मामले में बहुत छोटा खिलाड़ी है (इसका सकल घरेलू उत्पाद का स्तर भारत की तुलना में कम है) और संभवतः अपने वर्तमान फैसले के लिए उसे भारी आर्थिक नुकसान होगा. विशेषज्ञों का कहना है कि रूस अपनी हरकतों के कारण अपने डॉलर के भंडार को तो कम करेगा ही, साथ ही इसके आर्थिक परिणामों को भी भुगतेगा