चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने यूरोपीय संघ से आग्रह किया कि वह अमेरिका के “एकतरफा दबाव और धमकी भरे” टैरिफ के खिलाफ बीजिंग के साथ शामिल हो।

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने यूरोपीय संघ (EU) से अमेरिका की ‘एकतरफा धमकीपूर्ण नीतियों’ और व्यापारिक टैरिफ के खिलाफ एकजुट होकर खड़े होने का आग्रह किया है। यह बयान ऐसे समय में आया है जब अमेरिका और चीन के बीच व्यापारिक तनाव एक बार फिर से बढ़ते दिख रहे हैं और वाशिंगटन ने हाल ही में चीनी उत्पादों पर नए आयात शुल्क लगाने की घोषणा की है।
अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध में नई गर्मी
पिछले कुछ वर्षों से अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध चला आ रहा है। ट्रंप प्रशासन के दौरान इसकी शुरुआत हुई थी, जिसे बाइडन प्रशासन ने कुछ हद तक जारी रखा। लेकिन 2025 की शुरुआत में अमेरिका द्वारा चीन से आयातित इलेक्ट्रिक वाहनों, सौर पैनलों और चिप्स पर भारी शुल्क लगाने के फैसले ने एक बार फिर इस विवाद को हवा दे दी है।
शी जिनपिंग ने मंगलवार को यूरोपीय नेताओं के साथ एक उच्चस्तरीय वर्चुअल सम्मेलन के दौरान कहा, “विश्व को एक बहुपक्षीय व्यवस्था की आवश्यकता है। हमें अमेरिका जैसे देशों की एकतरफा नीतियों और धमकियों का सामूहिक रूप से विरोध करना चाहिए। चीन और यूरोपीय संघ को व्यापार, जलवायु परिवर्तन और वैश्विक शांति जैसे क्षेत्रों में साझेदारी को और मजबूत करना चाहिए।”
यूरोपीय संघ की स्थिति
यूरोपीय संघ इस समय अमेरिका और चीन दोनों के साथ अपने संबंधों को संतुलन में रखने की कोशिश कर रहा है। जहां अमेरिका यूरोपीय देशों का रणनीतिक और सैन्य सहयोगी है, वहीं चीन उसके लिए एक बड़ा व्यापारिक साझेदार भी है। यूरोपीय संघ के प्रमुख देशों जैसे जर्मनी, फ्रांस और नीदरलैंड की कंपनियां चीन में भारी निवेश कर चुकी हैं और वहां से आयात-निर्यात का स्तर भी बहुत ऊँचा है।
इस सम्मेलन में यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन, यूरोपीय परिषद के अध्यक्ष चार्ल्स मिशेल, और कुछ प्रमुख सदस्य देशों के प्रतिनिधि मौजूद थे। यूरोपीय नेताओं ने शी की चिंताओं को सुना, लेकिन सीधे तौर पर अमेरिका के खिलाफ खड़े होने से परहेज़ किया। उन्होंने कहा कि यूरोपीय संघ स्वतंत्र नीति का पक्षधर है और वैश्विक व्यापार के नियमों को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध है।
शी जिनपिंग का कड़ा रुख
चीनी राष्ट्रपति ने अमेरिका पर वैश्विक व्यापार को ‘राजनीतिक हथियार’ बनाने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि अमेरिका WTO (विश्व व्यापार संगठन) के नियमों की खुलेआम अवहेलना कर रहा है और एकतरफा टैरिफ थोपकर वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला को बाधित कर रहा है।
शी ने कहा, “जब भी कोई देश तकनीकी या आर्थिक रूप से आगे बढ़ने की कोशिश करता है, अमेरिका उसे रोकने के लिए दबाव की नीति अपनाता है। यह केवल चीन के साथ नहीं, बल्कि यूरोप, भारत, रूस और अन्य देशों के साथ भी होता आया है। ऐसे में यूरोप को यह सोचना होगा कि क्या वह इस एकतरफा व्यवस्था का हिस्सा बनना चाहता है या स्वतंत्र वैश्विक आवाज़ बनना चाहता है।”
व्यापार के आंकड़े
वर्ष 2024 में चीन और यूरोपीय संघ के बीच द्विपक्षीय व्यापार का आंकड़ा करीब 900 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया था। यह चीन के लिए अमेरिका के बाद दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक ब्लॉक है। वहीं, यूरोपीय कंपनियों के लिए चीन न केवल एक बड़ा बाजार है, बल्कि एक रणनीतिक निवेश का केंद्र भी है।
हालांकि हाल के वर्षों में यूरोपीय संघ ने चीन पर कुछ रणनीतिक प्रतिबंध भी लगाए हैं, जैसे कि मानवाधिकार उल्लंघन के मामले में शिनजियांग प्रांत को लेकर, लेकिन व्यापक आर्थिक संबंध अब भी मजबूत बने हुए हैं।
अमेरिका की रणनीति
अमेरिका ने हाल में यह घोषणा की कि वह चीनी इलेक्ट्रिक वाहनों पर 100% तक का आयात शुल्क लगाएगा, क्योंकि वह उन्हें ‘राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा’ मानता है। इसके अलावा, अमेरिका ने कुछ चीनी कंपनियों को अपनी एंटरप्राइज लिस्ट में डालकर उनके साथ व्यापार पर रोक भी लगाई है।
अमेरिकी प्रशासन का मानना है कि चीन अपनी कंपनियों को भारी सब्सिडी देकर अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में अनुचित लाभ पहुंचाता है और तकनीकी जासूसी करता है। चीन इन आरोपों को नकारता रहा है और इसे ‘निराधार’ और ‘राजनीतिक रूप से प्रेरित’ बताता है।
यूरोप के लिए मुश्किल फैसला
यूरोपीय संघ अब ऐसे दो महाशक्तियों के बीच फंसा हुआ है, जिनके साथ उसके गहरे आर्थिक और रणनीतिक हित जुड़े हैं। एक ओर उसे अमेरिका के साथ नाटो और अन्य सुरक्षा समझौतों के कारण सामरिक संबंध बनाए रखने हैं, वहीं दूसरी ओर चीन के साथ व्यापारिक हित उसे अमेरिका के नज़दीक आने से रोकते हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि आने वाले समय में यूरोपीय संघ को अपनी “रणनीतिक स्वायत्तता” की नीति को और सुदृढ़ करना होगा। इसका मतलब है कि वह अमेरिका या चीन में से किसी एक का पक्ष लेने के बजाय अपने हितों के अनुसार स्वतंत्र निर्णय ले।
भारत और अन्य देशों पर प्रभाव
इस वैश्विक खींचतान का असर भारत और अन्य विकासशील देशों पर भी पड़ सकता है। भारत के लिए यह अवसर हो सकता है कि वह चीन के विकल्प के रूप में सामने आए और यूरोपीय कंपनियों को निवेश के लिए आकर्षित करे। भारत पहले ही “मेक इन इंडिया” और “चिप्स इंडिया” जैसी योजनाओं के माध्यम से वैश्विक कंपनियों को आमंत्रित कर रहा है।
वहीं, ब्रिक्स जैसे मंच पर भी यह चर्चा तेज़ हो गई है कि क्या अमेरिका के वर्चस्व को संतुलित करने के लिए चीन और रूस के नेतृत्व में कोई नया आर्थिक ढांचा तैयार किया जा सकता है।
निष्कर्ष
शी जिनपिंग का यह बयान न केवल अमेरिका के खिलाफ एक कड़ा संदेश है, बल्कि यूरोपीय संघ के लिए भी एक कूटनीतिक चुनौती है। अब देखना यह होगा कि यूरोपीय संघ किस दिशा में अपने कदम बढ़ाता है — क्या वह अमेरिका के साथ खड़ा रहेगा, या चीन के साथ मिलकर एक नई वैश्विक व्यवस्था को आकार देने की कोशिश करेगा?
अगले कुछ महीनों में होने वाले G20 और WTO के शिखर सम्मेलनों में इस मुद्दे पर और गहन चर्चा होने की संभावना है। यह कहना गलत नहीं होगा कि वर्तमान वैश्विक राजनीति एक नए दौर में प्रवेश कर रही है, जहां पारंपरिक गुटबंदी अब आर्थिक हितों के आधार पर पुनः परिभाषित हो रही है।