यूपी चुनाव के पहले से ही मायावती पर जो आरोप लगते रहे हैं, अमित शाह का बयान एक तरह से उसे तस्दीक कर रहा है – और मुस्लिम वोटर का जिक्र बीजेपी की फिक्र की तरफ इशारा है.

अमित शाह ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में बीएसपी की प्रासंगिकता स्वीकार कर मायावती पर कोई एहसान नहीं किया है – ये वो भी जानती हैं, तभी तो बीएसपी नेता ने बीजेपी नेता की बातों को ‘महानता’ से जोड़ कर कटाक्ष भी किया है.
हो सकता है अमित शाह के बयान और उस पर मायावती के रिस्पॉन्स के बाद कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा भी अपने नजरिये में थोड़ा संशोधन कर लें. मायावती को बीजेपी का अघोषित प्रवक्ता बता चुकीं प्रियंका गांधी अब चाहें तो अपने समर्थकों को ऐसे भी समझा सकती हैं कि अमित शाह के बयान को अब नयी घोषणा या औपचारिक तौर पर बीजेपी के प्रति बीएसपी का स्टैंड समझ लेना चाहिये.
लेकिन क्या अमित शाह ने मायावती की यूं ही तारीफ की होगी? राजनीति में तो ऐसा होने से रहा – और वो भी अमित शाह जैसे नेता की तरफ से तो कुछ ऐसे वैसा का सवाल भी पैदा नहीं होता.
यूपी चुनाव की मतदान प्रक्रिया के मध्य काल में पहुंच जाने के बाद आखिर अमित शाह को बीएसपी को लेकर ऐसा बयान देने की जरूरत क्यों पड़ी होगी – सबसे बड़ा सवाल यही है और फिलहाल इसी को समझना सबसे जरूरी है?
ये अमित शाह ही हैं, जब बीजेपी की रैलियों में या जब भी मीडिया के सामने होते, पूछते रहे – बहनजी बाहर क्यों नहीं आ रही हैं? ये बीजेपी वाले ही हैं जो मायावती पर वर्क फ्रॉम हो पॉलिटिक्स का इल्जाम भी लगा चुके हैं.
मायावती की चुनावी राजनीति को लेकर प्रियंका गांधी ने भी अमित शाह जैसे ही सवाल खड़े किये थे, लेकिन अखिलेश यादव तो कभी नहीं. बल्कि, अखिलेश यादव तो जयंत चौधरी के साथ बैठ कर जगह जगह जोर देकर कहते रहे कि अंबेडकरवादियों को भी समाजवादियों के साथ आकर – मिल कर बीजेपी के खिलाफ लड़ाई को मजबूत बनानी चाहिये.
ये तो साफ साफ समझ आ रहा है कि बीएसपी को लेकर अमित शाह का बयान मायावती के लिए फायदेमंद, और जाहिर है, अखिलेश यादव के लिए नुकसानदेह है – लेकिन अब ये समझना और भी जरूरी है कि क्या बीजेपी को समाजवादी पार्टी कोई टेंशन देने लगी है – जिसे लेकर अमित शाह यूपी में पश्चिम बंगाल की तरह मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण रोकना चाहते हैं?
बीजेपी को मुस्लिम वोट की टेंशन क्यों?
यूपी चुनाव के दौरान अलग अलग मौकों पर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मुस्लिमों को लेकर उनका नजरिया जानने की कोशिश की गयी – और जाहिर है दोनों ही नेताओं ने मिलता जुलता ही जवाब दिया.
बीजेपी को लेकर एक सवाल ये भी रहा है कि यूपी चुनाव में पिछली बार की तरह इस बार भी किसी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया गया है. दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान यही सवाल जब बीजेपी सांसद मनोज तिवारी से पूछा गया तो बोले, ‘भाजपा उन्हीं मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दे सकती है, जहां मुस्लिम इलाके हैं, लेकिन हम टिकट दे देते हैं तो वे जीतते ही नहीं हैं… हम दूसरा ऑप्शन चुनते हैं.’
मनोज तिवारी ने अपनी दलील के सपोर्ट में कुछ उदाहरण भी दिये, रामपुर में मुख्तार अब्बास नकवी को भी नहीं जिताया. हम उन्हें राज्य सभा से लाकर मंत्री बनाते हैं… मोहसिन भाई को एमएलसी बनाकर लाये हैं… वे यूपी में मिनिस्टर हैं.’
मुस्लिम उम्मीदवारों को लेकर केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने एक बार कहा था, ‘…जहां तक टिकटों का सवाल है, ये अच्छा होता अगर मुसलमानों को टिकट दिया जाता,’ लेकिन 2017 के विधानसभा चुनावों को लेकर नकवी का कहना था कि कोई जिताऊ उम्मीदवार मिला ही नहीं.
मुस्लिम वोटर पर अमित शाह के बयान के मायने
अब ये समझना जरूरी है कि क्या बीजेपी को समाजवादी पार्टी किसी तरह का कोई टेंशन देने लगी है, जिसे लेकर अमित शाह यूपी में पश्चिम बंगाल की तरह मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण रोकना चाहते हैं?
पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव नतीजों की समीक्षा के लिए बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा की बुलायी मीटिंग से खबर आयी थी, बीजेपी नेतृत्व ने महसूस किया कि मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण की वजह से बंगाल में बीजेपी चुनाव हार गयी.
यूपी में चुनावी माहौल जोर पकड़ने से पहले ही सलमान खुर्शीद की किताब आई और उसके बाद राहुल गांधी ने हिंदू, हिंदुत्व और हिंदुत्वाद की थ्योरी के साथ संघ और बीजेपी नेताओं को हिंदुत्ववादी कहना शुरू किया था – लेकिन फिर दूसरे मसलों में उलझ कर शांत हो गये.
जब से लगने लगा कि यूपी में बीजेपी को टक्कर न तो मायावती दे पा रही हैं न कांग्रेस, मुस्लिम वोटर के बीच ये मैसेज जाने लगा कि ये अखिलेश यादव और जयंत चौधरी की जोड़ी ही है जो बीजेपी को चैलेंज करने में सक्षम नजर आ रही है – जाहिर है वोट किसे देना है, मुस्लिम समुदाय के लिए ये फैसला करने में ये सबसे निर्णायक फैक्टर समझा जाता है.
ये भी देखने में आया कि मायावती और असदुद्दीन ओवैसी में मची होड़ मुस्लिम वोट के बंटवारे की वजह बन रही है, लेकिन ऐसी कोशिशों का बहुत ज्यादा असर नहीं देखने को मिला. बिहार विधानसभा चुनाव 2020 को छोड़ कर देखें तो.
मुस्लिम वोट बीजेपी के लिए ज्यादा खतरनाक मुस्लिम आबादी वाले इलाकों में ज्यादा नहीं होता – वहां तो मायावती और ओवैसी के पॉलिटिकल इंटरेस्ट की वजह से बीजेपी को फायदा ही होता है.
बीजेपी के लिए मुश्किल वहां होता है जहां हिंदू वोटर का कोई एक भी तबका नाराज हो – और मुस्लिम वोट एकजुट होकर बीजेपी के खिलाफ पड़ जाये. पश्चिम उत्तर प्रदेश में ये खतरा था और बीजेपी इसी बात को लेकर ज्यादा परेशान रही है.
किसान आंदोलन के चलते जाटों की नाराजगी को दूर करने की अमित शाह की तरफ से काफी कोशिशें हुईं. जयंत चौधरी को लेकर बीजेपी नेतृत्व की तरफ से कन्फ्यूज करने की कोशिश की गयी कि जयंत चौधरी तो चुनाव बाद बीजेपी में ही मिल जाएंगे – मतलब, अगर वे जयंत को अखिलेश का साथी मान कर बीजेपी के खिलाफ वोट करते हैं तो भी कोई फायदा नहीं होने वाला. वैसे जयंत चौधरी काफी अलर्ट रहे और वैसे ही रिएक्ट भी करते रहे – बड़े नेताओं की फिक्र देख कर लगता है कि मैं सब ठीक ही कर रहा हूं.
मायावती की तारीफ करने का अमित शाह का मकसद जयंत चौधरी से मिलता जुलता हो सकता है – लेकिन ये बीजेपी की तरफ से कांग्रेस को दी जाने वाली अहमियत जैसा ज्यादा लगता है.
योगी आदित्यनाथ की आधी पारी पूरी हो जाने के बाद से समझा जाने लगा था कि अखिलेश यादव को डाउनप्ले करने के लिए प्रियंका गांधी वाड्रा की एक्टिविटी और बयानों पर बीजेपी का रिएक्शन ज्यादा महत्व देने वाला होता था.
ये असल में अखिलेश यादव के योगी आदित्यनाथ को चैलेंज देने के लोगों तक पहुंचने वाले मैसेज से गुमराह करने की कोशिश हुआ करती थी. बीजेपी ये बताने की कोशिश करती थी कि समाजवादी पार्टी मुकाबले में कहीं है ही नहीं.
अब अमित शाह ने मायावती को वैसा ही महत्व देकर लोगों को नये सिरे से अखिलेश यादव से ध्यान बंटाने की कोशिश की है – और साथ में मुस्लिम वोटर को भी, ताकि वो सिर्फ अखिलेश यादव के भ्रम में ही न फंसा रहे, बल्कि ओवैसी के साथ साथ मायावती के बारे में भी एक बार सोचे जरूर – और ऐसा हो गया तो समझ लीजिये अमित शाह ने ‘खेला’ कर दिया.
मुद्दे की बात ये है कि अखिलेश यादव को लेकर यूपी चुनाव में जो अंडर करेंट महसूस कराया जाने लगा है, बीजेपी की चिंता बढ़ना स्वाभाविक ही है. हकीकत जरूरी नहीं कि बिलकुल वैसी ही हो, लेकिन मुस्लिम वोट और मायावती के बहाने सामने आयी अमित शाह की फिक्र उस पर मुहर लगाने जैसी ही है.