सपा समाजवाद का झंडा बुलंद कर यूपी में कामयाब हुई थी, लेकिन कामयाब सपा पर परिवारवाद और यादववाद फैलाने का आरोप लगता रहा. जिसका खामियाजा पूर्व में सपा को उठाना भी पड़ा और सपा का प्रदर्शन निचले पायदान पर पहुंच गया. ऐसे में इस चुनाव में अखिलेश यादव दोबारा कामयाब होने के लिए परिवारवाद ओर यादववाद से दूरी बनाते हुए दिख रहे हैं.

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 अपने चरम पर है. इस बार यूपी की 403 सीटों पर 7 चरणों में मतदान होना है. जिसके लिए अभी तक 4 चरणों में होने वाले मतदान के लिए नामांकन की प्रक्रिया पूरी हो गई है. इस चुनाव में यूपी की सियासत के लिए बीजेपी और सपा के बीच मुख्य मुकाबला माना जा रहा है. सपा ने इस दौड़ में मजबूती के साथ शामिल होने के लिए कई अहम बदलाव किए हैं. जिसमें पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव कुल मिलाकर अभी तक परिवारवाद और यादववाद से दूरी बनाए हुए हैं. ऐसे में यह नई सपा चुनाव में कितनी कामयाब होगी, उस पर सबकी नजर है.
सपा के इस फैलसे से क्या पार्टी की छवि मजबूत हो रही है
विपक्षी दल लंबे समय से सपा पर परिवारवाद और यादववाद फैलाने का आरोप लगाते रहे हैं. ऐसे में सपा ने इस बार दोनों से ही व्यवहारिक दूरी बनाई हुई है. सपा ने अभी तक 300 से ज्यादा उम्मीदवारों के नामों का ऐलान कर दिया है, लेकिन इस सूची में परिवार के सदस्य के रूप में चाचा शिवपाल यादव ही शामिल हैं. जो भी गठबंधन के साथी के तौर पर शामिल किए गए हैं. वहीं सिर्फ यादव सरनेम के सहारे ही सपा ने इस बार किसी को उम्मीदवार नहीं बनाया है. ऐसे में सपा का यह फैसला कितना कामयाब होगा, यह तो वक्त ही बताएगा, लेकिन इन सबके बीच विपक्षी दलों की तरफ से सपा पर परिवारवाद और यादववाद को लेकर लगाए जाने वाले आरोप धड़ाम गिरे हैं. इससे सपा की छवि मजबूत होती दिखी है.
2017 के चुनाव में सपा के लिए नुकसान का कारण बना था ‘वाद’
यूपी की सियासत में सपा समाजवाद का झंडा बुलंद कर सफल हुई थी, लेकिन पार्टी की सफलता के साथ सपा परिवारवाद और यादववाद तक ही सिमटती नजर आई. एक दौर वह भी हुआ करता था कि जब यूपी में सपा की सरकार थी तो मुलायम परिवार समेत यादव जाति के लोग ही उच्च पदों पर काबिज थे. मसलन 2007 से पहले और 2012 के चुनाव के समय अखिलेश यादव के परिवार से सबसे ज्यादा सांसद, विधायक ,विधान परिषद सदस्य से लेकर बड़े राजनीतिक पदों पर परिवार के लोग काबिज रहे. 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने सपा को परिवार वादी पार्टी कहकर खूब प्रचारित किया था, जिसका खामियाजा भी सपा को भुगतना पड़ा. इसी वजह से सपा को 2017 के चुनाव में केवल 47 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा. जबकि उससे पहले 2012 के चुनाव में सपा 224 सीटों पर जीत दर्ज करने में सफल रही थी.
चुनावी रैलियों में परिवार के सदस्यों से अखिलेश ने बनाई हैं दूरियां
उत्तर प्रदेश किस चुनावी रैलियों में अखिलेश यादव ने इस बार परिवार के सदस्यों से मंच पर दूरियां बनाना शुरू कर दिया है. जिस तरह 2017 के और 2019 के चुनाव में सपा की रैलियों में मंच पर परिवार के सदस्यों का ही बोलबाला होता था, लेकिन इस बार अखिलेश यादव ने मंच पर परिवार के सदस्यों से किनारा कर लिया है. यहां तक इस बार पत्नी डिंपल यादव भी स्टार प्रचारक की सूची में होने के बावजूद भी मंच साझा करती भी नहीं दिखाई दे रही है।
इस चुनाव में सपा ने पिछड़े, दलित और मुस्लिम पर किया है फोकस
अखिलेश यादव ने इस बार चुनाव में यादववाद से दूरी बनाई हुई है. तो वहीं उन्होंने जाति आधारित छोटे दलों से इस बार खुलकर गठबंधन किया है. जिसमें वह ओपी राजभर से लेकर स्वामी प्रसाद मोर्या को साथ लाने में सफल रहे हैं. माना जा रहा है कि अखिलेश यादव अपने इस फैसलों से यह संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि सपा यादव के साथ ही गैर यादव पिछड़े, दलित और मुस्लिम मतदाताओं के साथ है. जिसे धार देने के लिए अखिलेश यादव जाति जनगणना का समर्थन करते हुए दिख रहे हैं.