आज़ादी के बाद हुए तमाम विधानसभा चुनाव के नतीजों का विश्लेषण करने पर साफ़ हो जाता है कि मुसलमान मुस्लिम नेतृत्व को मज़बूत करने की बात करने वाले मुस्लिम नेताओं की सभाओं में आकर उनके तकरीरों को सुनते जरूर हैं. ख़ूब तालियां भी पीटते हैं. लेकिन उन्हें वोट नहीं देते हैं.

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव को लेकर सरगर्मियां लगातार तेज होती जा रही हैं. सूबे के लगभग 20 फीसदी मुस्लिम मतदाताओं को अपने पाले में लाने के लिए हर पार्टी एड़ी चोटी का जोर लगा रही है. ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन
डा.जलील फ़रीदी ने की पहली कोशिश
आज़ादी के बाद मुसलमानों का नेता बनने की पहली कोशिश डा.जलील फ़रीदी ने की थी. वो लखनऊ के रहने वाले थे. आज़ादी के आंदोलन से जुड़े थे. आज़ादी के बाद समाजवादी आंदोलन से जुड़े रहे. 1968 में उन्होंने मुस्लिम मजलिस नाम से पार्टी बनाई. 1969 में 2 सीटों पर चुनाव भी लड़ा. लेकिन दोनों सीटों पर ही उनके उम्मीदवारों की जमानत ज़ब्त हो गई. उनकी पार्टी को सिर्फ 3,400 वोट मिले थे. 1974 के चुनाव में चौधरी चरण सिंह के साथ मिलकर उन्होंने 12 उम्मीदवार जीताए. हालांकि ये सभी भारतीय क्रांति दल के टिकट पर जीते थे. डॉ. फ़रीदी की कोशिशें इस मायने में कामयाब थीं कि उन्होंने उस वक्त राजनीतिक दलों के घोषणापत्र को प्रभावित किया था. 1974 में ही उनकी मौत के बाद उनकी पार्टी और उनका आंदोलन दम तोड़ गया.
मुस्लिम लीग ने भी आज़माई क़िस्मत
1974 के चुनाव में ही मुस्लिम लीग ने उत्तर प्रदेश में एंट्री मारी. केरल में लंबे समय तक गठबंधन सरकार का हिस्सा रही और एक बार मुख्यमंत्री बना चुकी मुस्लिम लीग को उत्तर प्रदेश की ज़मीन सियासी तौर पर काफ़ी उपजाऊ लगी. 1974 में मुस्लिम लीग ने 54 सीटों पर चुनाव लड़कर महज़ एक सीट जीती. 43 सीटों पर उसके उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हुई. उसे 3,78,000 वोट मिले. लेकिन उसके बाद उसका एक भी उम्मीदवार किसी चुनाव में नहीं जीता. मुस्लिम लीग ने 2007 तक 2 से 18 सीटों पर चुनाव लड़े. उसे कभी सम्मानजनक वोट भी नहीं मिले. उसके सभी उम्मीदवारों की जमानत ज़ब्त होती रही.
डॉ. मसूद भी चले फ़रीदी के नक्शे क़दम
डॉ. जलील फ़रीदी के बाहर डॉ. मसूद ख़ान ने मुसलमानों का नेता बनने की कोशिश की डॉ. मसूद 1995 में बीजेपी के समर्थन से बनी मायावती की सरकार में शिक्षा मंत्री थे. मायावती ने अपने मंत्रिमंडल से उन्हें बहुत बेइज्जत करके निकाला था. इसी खुन्नस में उन्होंने लोकतांत्रिक पार्टी का गठन किया. जौनपुर के बीएसपी विधायक अरशद खान भी उनके साथ आ गए. 1996 के चुनाव में तो नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी ने हिस्सा नहीं लिया था. लेकिन 2002 में इसने 130 सीटों पर चुनाव लड़ा और एक सीट जीती. उसके 126 उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हुई थी. उसे 3,81,300 वोट मिले थे. 2007 के चुनाव में नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी ने सिर्फ 10 सीटों पर चुनाव लड़ा और सभी पर ज़मानत जब्त हुई. उसे सिर्फ 7,750 वोट मिले. नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी बनाने वाले डॉ. मसूद राजनीति की भूल भुलैया में खो चुके हैं और अरशद ख़ान समाजवादी पार्टी के महासचिव हैं.
बुख़ारी ने भी देखा था ख़्वाब
2007 के विधानसभा चुनाव में दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम अहमद बुख़ारी ने मुसलमानों का नेता बनने का ख्वाब देखा. कई पार्टियों को मिलाकर उत्तर प्रदेश यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट बनाया. बुख़ारी के नेतृत्व वाले यूपीयूडीएफ ने 2007 में 54 सीटों पर चुनाव लड़कर एक सीट जीती. 51 सीटों पर ज़मानत ज़ब्त हुई. यूपीयूडीएफ को 1,80,327 वोट मिले थे. उसके जीते एकमात्र उम्मीदवार हाजी याकूब क़ुरैशी ने नतीजे आने के फौरन बाद मायावती की शरण में जाने का ऐलान कर दिया था. इस शर्मनाक हार के बाद बुख़ारी का उत्तर प्रदेश के मुसलमानों का नेता बनने का सपना चकनाचूर हो कर बिखर गया. 2007 के बाद बुख़ारी किसी भी चुनाव में सक्रिय नहीं रहे.
डॉ. अयूब, अंसारी बंधु और मौलाना रशादी
2012 के विधानसभा चुनाव से पहले मुसलमानों के वोट के कई हक़दार पैदा हो गए. कभी नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी को आर्थिक मदद करने वाले और पार्टी के उपाध्यक्ष रहे डॉ. अय्यूब सर्जन ने 2008 में पीस पार्टी का गठन किया. 2012 के चुनाव से पहले बाहुबली माने जाने वाले मुख्तार अंसारी और उनके भाई अफ़जाल अंसारी ने क़ौमी एकता दल बना लिया. आजमगढ़ के मौलाना आमिर रशादी ने राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल बनाई. पूर्वांचल के ये नेता पूरे प्रदेश के मुसलमानों के नेता बनने का ख्वाब देख रहे थे. अंसारी बंधु तो इस दौड़ से बाहर हो चुक हैं, लेकिन डॉ. अयूब और मौलाना रशादी अभी भी कोशिशों में जुटे हैं.
पीस पार्टी ने 2012 के चुनावों में 208 सीटों पर चुनाव लड़कर 4 सीटें जीती. कुल 17,84,258 वोट हासिल किए. क़ौमी एकता दल भी 43 सीटें लड़कर 2 सीटें जीतने में कामयाब रहा लेकिन राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल का खाता तक नहीं खुला. चुनाव के बाद अंसारी बंधुओं ने तो कौम की क़यादत करने का ख्वाब छोड़कर बहुजन समाज पार्टी में अपनी पार्टी का विलय कर लिया. 2017 के विधानसभा चुनाव में पीस पार्टी और राष्ट्रीय उलेमा कौंसिल का डिब्बा पूरी तरह गोल हो गया. दोनों में से किसी पार्टी का खाता तक नहीं खुला. 2022 के चुनाव दोनों पार्टियों ने आपस में गठबंधन कर लिया है. लेकिन इस बार ये पार्टियां चुनाव के बीच चर्चा में नहीं हैं.
इस बार ओवैसी हैं मैदान में
2014 के लोकसभा चुनाव के बाद हैदराबाद के सांसद और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी को पूरे देश के मुसलमानों का नेता बनने का शौक चर्राया है. उत्तर प्रदेश के मुसलमानों का नेता बनने के लिए उन्होंने 2017 के विधानसभा चुनाव में भी क़िस्मत आज़माई थी. उनकी पार्टी ने तब 38 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ा था. लेकिन एक को छोड़कर बाकी सभी सीटों पर उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हो गई थी. एकमात्र संभल विधानसभा सीट पर उनकी पार्टी के उम्मीदवार को 60 हज़ार से ज्यादा वोट मिले थे. उम्मीदवार समाजवादी पार्टी के मौजूदा सांसद शफ़िक़ुर्रहमान बर्क़ के बेटे थे. इस नाते उनका व्यक्तिगत जनाधार इस इलाके में है. लिहाज़ा इतने वोट हासिल करने में ओवैसी की पार्टी का कोई ख़ास योगदान नहीं माना जा सकता.
अलग-अलग दौर में अलग-अलग नेता
मैंने पहले भी अपने एक लेख में यह बताया था कि असदुद्दीन ओवैसी उत्तर प्रदेश में नाकाम हो चुके प्रयोगों को ही एक बार फिर दोहरा रहे हैं. लिहाज़ा इनका अंजाम भी पुराने प्रयोगों की तरह होना है. उत्तर प्रदेश के मुसलमानों का नेता बनने की जिन मुस्लिम नेताओं ने कोशिश की है उन्हें नकार कर प्रदेश के मुसलमानों ने हमेशा धर्मनिरपेक्ष नेतृत्व को तरजीह दी है. आज़ादी के बाद 20 साल तक कांग्रेस मुसलमानों की पहली पसंद रही. उसके बाद कांग्रेस से लोगों का मोहभंग होना शुरू हुआ. कांग्रेस के विकल्प में जो भी पार्टी सामने आई उसी की तरफ़ मुसलमानों का भी रूझान होता रहा.
आपातकाल के बाद उत्तर प्रदेश में दलित-मुस्लिम समीकरण की शुरुआत करने वाले कांशीराम और मायावती को मुसलमानों ने अपना नेता माना. वहीं समाजवादी आंदोलन को आगे बढ़ाने वाले मुलायम सिंह यादव पर मुसलमान बरसों भरोसा करते रहे. पश्चिम उत्तर प्रदेश में पहले चौधरी चरण सिंह को मुसलमानों ने नेता माना, उनके बाद उनके बेटे अजीत सिंह पर भरोसा किया और अब जयंत पर भी मुसलमान भरोसा करते हैं
आज़ादी के बाद हुए तमाम विधानसभा चुनाव के नतीजों का विश्लेषण करने पर साफ़ हो जाता है कि मुसलमान मुस्लिम नेतृत्व को मज़बूत करने की बात करने वाले मुस्लिम नेताओं की सभाओं में आकर उनके तकरीरों को सुनते जरूर हैं. ख़ूब तालियां भी पीटते हैं. लेकिन जब वोट करने का वक़्त आता है तो उनकी पसंद धर्मनिरपेक्ष दल ही होते हैं. 2022 के विधानसभा चुनाव में भी यही कहानी दोहराई जाएगी. ओवैसी का नेतृत्व क़ुबूल करने के बजाय यूपी के मुसलमान एसपी, बीएसपी, कांग्रेस और आरएलडी को ही पसंद करेंगे इस बात की संभावना ज्यादा है.
के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी लगातार मुसलमानों का नेता बनने का दंभ भर रहे हैं. अपनी हर रैली में वो मुसलमानों से अपील कर रहे हैं कि एसपी, बीएसपा, कांग्रेस और आरएलडी को छोड़कर वह उन्हें अपना नेता माने. ओवैसी की अपील अपनी जगह है लेकिन हक़ीक़त ये है कि आज़ादी के बाद मुसलमानों ने कभी भी किसी मुसलमान को अपना नेता नहीं माना. चाहे वो सूबे का हो या सूबे से बाहर का.
आज़ादी के बाद से अब तक उत्तर प्रदेश में 17 विधानसभा चुनाव हो चुके हैं. 18वीं विधानसभा के लिए क़रीब दो महीने बाद चुनाव होंगे. इससे पहले हुए 17 विधानसभा चुनावों में सूबे और सूबे से बाहर के आधा दर्जन मुस्लिम नेता, मुसलमानों का नेता बनने की कोशिश कर चुके हैं. एक-दो चुनाव के बाद हार मान कर लौटना पड़ा. उत्तर प्रदेश का मुसलमान इन सभी नेताओं की रैलियों में तो खूब जुटते हैं. इनके तकरीरों पर तालियां भी खूब पीटते हैं. लेकिन इनके हक में वोट करने से परहेज करते हैं. आज़ादी के बाद हुए चुनावों के आंकड़े इस बात का सुबूत हैं.